प्री स्कूल (Pre-school) में बच्चों की गतिविधियों की संरचना कुछ इस तरह से की होती है जिससे बच्चे खुद के विकास व शिक्षा में सक्रीय भागीदार आगे निभाते हैं। आम तौर पर, जो बच्चे 5 से 11 साल की उम्र के बीच के होते हैं, उनसे एक प्राथमिक शिक्षा संस्थान में भाग लेने की उम्मीद की जाती है, जहाँ वे ऐसे विषयों और कौशलों को सीखते हैं जो उनकी स्कूली शिक्षा के बाकी हिस्सों की नींव रखते हैं। प्री स्कूल (Pre-school) शिक्षा से हम उनकी वर्तमान योग्यता में सहयोग करते हुए उनके विकास की यात्रा को अगले पड़ाव पर पहुचने में मदद मिलती है।
ये कहना गलत नहीं होगा कि बच्चों के विकास में उसकी परवरिश और गतिविधियों से बहुत असर पड़ता है। एक बच्चे की पढ़ाई से भी पहले खेल से परिचय हो जाती है। बच्चे खेल-खेल में ही सबसे अधिक सीखते हैं, और उनके लिए खेलना सबसे उचित और मनोरंजक एक्टिविटी है। जब बच्चे शांत मन से किसी खेल में व्यस्त होते हैं, तब वे चीजों को बड़े ही रचनात्मकता के साथ उनको जानते और खोजते हैं। इसी साधन व सोच को समझ कर किंडरगार्टन यानी प्री-स्कूल की शिक्षा को ज़रूरी माना जाता है।
पढ़ाई में मिलती है मदद
प्री स्कूल (Pre-school) के दौरान बच्चे क्लास में कविता, कहानी, रोल-प्ले, गाने गाना, प्रार्थना करना जैसी मौखिक गतिविधियों में शामिल होते हैं। ये सभी एक्टिविटीज उनकी पर्सनालिटी को बेहतर बनाने में मदद करती हैं। वे समूहों में बोलना सीखते हैं। वे छोटे-छोटे समूहों के सामने बोलने का आत्मविश्वास भी विकसित करते हैं। जो आगे चलकर काफी काम आता है।
प्राथमिक शिक्षा आम तौर पर औपचारिक शिक्षा का पहला चरण है, जो पूर्व-विद्यालय के बाद और माध्यमिक शिक्षा से पहले आता है। प्राथमिक शिक्षा आमतौर पर एक प्राथमिक विद्यालय में होती है। जो बच्चे प्री-स्कूल में 6 घंटे बिताते हैं, उनके लैंग्वेज और गणित के स्किल्स अच्छे होते हैं। इससे बच्चों को अपनी उच्च शिक्षा में काफी मदद मिलती है। वहीं जिन बच्चों को प्री-स्कूल जाने का मौका नहीं मिल पाता है और जो सीधा प्राइमरी स्कूल जाते हैं, उन्हें बाकी बच्चों और टीचर के साथ बात करने में दिक्कत आती है।
स्कूल जाने में मदद
3 साल तक आपके साथ रहने से बच्चे को आपकी और परिवार की आदत हो जाती है। ऐसे में जब पहली बार उसे आप स्कूल के गेट तक छोड़ने जाती हैं, तो वो आपको छोड़ना नहीं चाहता। आपसे दूर जाने पर वो बहुत रोता है। आपकी दशा भी कुछ ऐसी ही होती है। ऐसे में शुरुआत से ही जब बच्चा आपसे कुछ घंटे ही सही, दूर रहने लगता है, तो वो सेपरेशन ब्लू यानी आपसे दूर जाने की बात को आसानी से सह लेता है। कम उम्र में ही प्ले स्कूल में जाने से बच्चे में सीखने की प्रवृत्ति बढ़ती है। टीचर द्वारा सिखाए पोएम को वो बार-बार दोहराता है। इससे उसका आधार मज़बूत होता है। स्कूल जाने के बाद उसे चीज़ों को समझने में आसानी होती है।
भाषा में सुधार
प्ले स्कूल जाने से बच्चों की भाषा में सुधार आता है और शब्दावली का विकास होता है क्योंकि बच्चे घर पर जितना सीख पाते हैं और उससे अधिक प्ले स्कूल में बोलना और शब्दों को पहचनना सीखते हैं। इसके अलावा अन्य बच्चों के साथ वह सामंजस्य और शेयरिंग की आदत का विकास भी कर पाते हैं। इससे वह धीरे-धीरे खुद को एक्सप्रेस करना सीखते हैं। कई बार पेरेंट्स बच्चे को घर पर उस तरह से समय नहीं दे पाते हैं ताकि वह उनकी हर जिज्ञासा और एक्टिविटी पर ध्यान दें लेकिन प्ले स्कूल में उन्हें तरह-तरह के खेल और एक्टिविटी को करने और चीजों से खेलने का मौका मिलता है।
अंकुर फाउंडेशन द्वारा चलाये जा रहे प्ले स्कूल में शिशु के प्रारंभिक शिक्षा और मानसिक बौद्धिक विकास के लिए प्रशिक्षित शिक्षक उपलभ्ध हैं जहाँ बच्चों को एक बेहतर भविष्य के लिए तैयार किया जाता है
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